पुरुषोत्तम कुण्डलिया
पुरुषोत्तम कुण्डलिया
सारस्वत साधक बनो, छोड़ दूसरा कर्म।
लेखन सर्वोत्तम सरल, यह भावों का धर्म।।
यह भावों का धर्म, लेखनी चले निरन्तर।
अमृत बनें विचार, दिखें कागज पर सुंदर।।
कहें मिसिर कविराय,भरो जगती में ताकत।
रच पुरुषोत्तम विश्व,स्वयं बनकर सारस्वत।।
पूजन माँ का नित करो, नियमिय सुंदर गान।
माँ से बढ़कर है नहीं, कोई भी सम्मान।।
कोई भी सम्मान, दिलातीं माँ भक्तों को।
दिव्य पढ़ातीं पाठ, सहज ही अनुरक्तों को।।
कहें मिसिर कविराय,भजे माँ श्री को जन-मन।
माँ के पावन भाव, होय लेखन अरु पूजन।।
सर्वोत्तम साहित्य से, गढ़ सुंदर इंसान।
मानवता को देख कर, खुश होंगे भगवान।।
खुश होंगे भगवान,पुष्प की वर्षा होगी।
आयेंगे सब देव, लोक में हर्षा होगी।।
कहें मिसिर कविराय,सत्य लेखन ही उत्तम।
चल खुद बन साहित्य, बनो मानव सर्वोत्तम।।
लिखने का अभ्यास कर, लिखते रहो सुलेख।
पावन भाव-समुद्र को, जन्म-जन्म तक देख।।
जन्म-जन्म तक देख, भाव से रत्न निकालो।
शब्द रत्न अनमोल, उन्हें लेखन में डालो।।
कहें मिसिर कविराय,आ गया जिनको पढ़ने।
दिखी लेखनी हाथ, सतत लगती है लिखने।।
पुरुषोत्तम रच छंद को, हो मधु अमृत भाव।
सरस अमी रस शब्द से,मोहक सकल स्वभाव।।
मोहक सकल स्वभाव, लगे रसना सम्मोहक।
होठों पर हो स्नेह, बोल अनुपम शिव पोषक।।
कहें मिसिर कविराय,सहज लेखन सर्वोत्तम।
सत-प्रिय भाव-स्वभाव, गढ़त लेखक पुरुषोत्तम।।
कुण्डलिया में प्रेम ही, पावन पारस तत्व।
सबकी काया स्वर्ण बन, चमकाये निज सत्व।।
चमकाये निज सत्व, चतुर्दिक चमकें सूरज।
चमके भूमि विशाल,सुगन्धित सारा भू-रज।।
कहें मिसिर कविराय,बदल दो सारी दुनिया।
बन सारस्वत पूत, रचो उत्तम कुण्डलिया।।
Renu
23-Jan-2023 03:36 PM
👍👍🌺
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